डार्क हॉर्स
उन्हें लगने लगा था कि अभी रह-रहकर आँखों में चमक जाने वाली लाल बत्ती जल्द ही आँखों से निकल उनके दरवाजे पर खड़ी होगी।
तब तक माँ नाश्ते की थाली लेकर आ गई, "चलो जल्दी से खा लो दो दो पराठा भुजिया, पापा खा लिए हैं।" संतोष ने जैसे-जैसे डेढ़ पराठा खाया और बैग झोला लेकर बाहर बरामदे वाली चौकी पर रखकर वुडलैंड के जूते पहनने लगा जो उसने बी. ए. फाइनल के रिजल्ट के बाद अभी तीन महीने पहले ही खरीदे थे। विनायक बाबू अपनी हीरो होंडा पाँछ सामने लगाकर फोन पर बतिया रहे थे। माँ तब तक दही-चीनी की कटोरी लेकर बाहर निकली, "लो तनी सा दही खा लो दही-चीनी से जतरा बनता है।" सामान्य तौर पर इस देश में दही से दही बड़ा, लस्सी, रायता के अलावा जतरा भी बनता है। यह दुनिया में और कहीं नहीं बनता। संतोष को दही एकदम पसंद नहीं था। कभी नहीं खाता था पर जतरा के नाम पर दो चम्मच खा लिया। जतरा बनने का अर्थ था 'यात्रा का शुभ होना। तब तक विनायक बाबू बैग को बाइक के पीछे बाँध चुके थे।
गाँव 'इमरी' से भागलपुर रेलवे स्टेशन लगभग चालीस किलोमीटर पड़ता था। सड़क ऐसी थी कि डेढ़-दो घंटे तो लग ही जाते पहुंचने में संतोष ने माँ के पाँव छुए, पीठ पर बैग लटकाया और बाइक पर विनायक बाबू के पीछे बैठ गया। दो कदम आगे आते हुए माँ ने संतोष का सर सहलाते हुए कहा, "देखना उदास मत होना। खूब पढ़ना बढ़िया से यहाँ का चिंता एकदम नहीं करना खर्चा के भी मत सोचना। सब भेजेंगे पापा तुम बस जल्दिये खुशखबरी देना " कहते हुए माँ का गला भर आया और आँखों से आँसूओं की धार फूट पड़ी जो मां ने घंटों से रोक रखा था और इन आँसुओं में भी एक खुशी थी। एक उम्मीद थी। आखिर बेटे के भविष्य का सवाल था। कलेजे पर पत्थर रखना ही था। इसमें दर्द तो था पर ये बेटे के भविष्य की नींव में डाला गया पत्थर था। वह फूल का पत्थर था। विनायक बाबू बाइक स्टार्ट कर चुके थे।
"चलो हम आते हैं छोड़ के और हाँ, आज दोपहर का खाना मत बनाइएगा हमारा, आने में लेट-सवेर होगा। एगो काम है डीएसी ऑफिस में करते आएंगे " विनायक बाबू ने बाइक बढ़ाते हुए कहा भेला आज खाना क्या बनता। ऑफिस का काम तो बहाना था। आज न माँ को खाना धँसना था न विनायक बाबू को कलेजे का टुकड़ा इतनी दूर जा रहा था वह भी अकेले। बाइक घर से धूल उड़ाते निकल गई। माँ देर तक गांव के मंदिर वाले चौराहे तक एकटक बाइक को जाते ताकती रही।
कुछ दूर निकलते ही विनायक बाबू ने बाइक की स्पीड धीमी कर संतोष से पूछा, "एटीएम रख लिए हो?" "हाँ पापा " संतोष ने ऊपरी जेब पर हाथ टटोलते हुए कहा।
"दरमाहा वाला अकाउंट है कोई दिक्कत नहीं होगा।" इतना कह विनायक बाबू ने फिर स्पीड बढ़ा दी।
रास्ते में सड़क किनारे एक ढाबे के पास विनायक बाबू ने बाइक रोक दी। "यहाँ का पेड़ा बड़ा स्वादिष्ट होता है, एक किलो बँधवा देते हैं। " विनायक बाबू ने कहा। "नही पापा रहने दीजिए। चलिए जल्दी पहुंचना है। " संतोष बोला विनायक बाबू
तब तक लपककर दुकान पर पहुँच किलो भर पेड़े का ऑर्डर दे चुके थे।